मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

ख़तरे में दुनिया

पिछले साल जुलाई में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पर्यावरण में बदलाव पर राष्ट्रीय कार्ययोजना को जारी किया। इस योजना का इंतजार लंबे समय से किया जा रहा था। कार्ययोजना में देश के विकास के मुद्दों और गरीबी उन्मूलन को एक ऐसे तरीके से हासिल करने की बात की गयी है, जिससे पर्यावरण को सुधारा जा सके और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाई जा सके।

इस कार्ययोजना को आठ मिशनों में बांटा गया। इसमें से हरेक मिशन सौर ऊर्जा, ऊर्जा का पूरा इस्तेमाल, ऐसे गांव और शहर जो अपना भार खुद उठा सकें, पानी, जंगल और कृषि से जुड़ा हुआ है। इसमें हिमालयी इलाकों को भी जोड़ा गया है, जो ग्लेशियरों के पिघलने के खतरे से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, इसमें पर्यावरण बदलाव से जुड़े हुए विज्ञान और उसमें होने शोध कार्यों को भी जोहै।यह अपने-आप में एक बड़ा बदलाव है। अब तक लोग-बाग यही तर्क दिया करते थे कि हमें विकास की दौड़ में किसी से पिछड़ना नहीं चाहिए। जहां तक पर्यावरण को वाले नुकसान का सवाल है, तो उनके मुताबिक इसका जवाब हमें पश्चिमी देशों को बड़े साफ तरीके से देना चाहिए कि यह आपकी पैदा की हुई दिक्कत है, आप ही इसका इलाज करें। लेकिन पिछले कुछ सालों में लोगों के सोचने का तरीका बदल रहा है। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण में आ रहे बदलाव के सिलसिले में एक परिषद का गठन किया है और उसमें पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन को अपने विशेष दूत की हैसियत से नियुक्त किया है। इसी तरह से प्रधानमंत्री यह संदेश देना चाहते हैं कि यह मुद्दा भी उनकी नजरों में परमाणु डील की तरह ही अहमियत रखता है। इस कार्ययोजना की वजह से विश्व बिरादरी के सामने भारत की स्थिति में कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। इसमें उत्सर्जन की कोई सीमा तय करने का वायदा नहीं किया गया हैं।लेकिन यह प्रधानमंत्री के पिछले साल हैलिगेंडम में जी आठ देशों की बैठक में किए गए उस दावे को जरूर दोहराता है, जिसके मुताबिक भारत अपने प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को विकसित देशों के औसत से कम ही रखेगा। यह काम सुनने में भले ही आसान लगे, लेकिन इसे हासिल करना इतना आसान होगा नहीं। इस वादे का मतलब यह है कि हम कभी भी ऊर्जा का इस्तेमाल उस स्तर पर नहीं कर पाएंगे, जिस स्तर पर आज पश्चिमी देश कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि जैसे-जैसे पश्चिमी देश उन्नत तकनीक का इस्तेमाल से कम कार्बन उत्सर्जन की तरफ मुड़ेंगे, उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम होता जाएगा।इस वजह से हमें भी अपना प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भी कम करना पड़ेगा। यूरोप 2030 तक अपने कुल उत्सर्जन में 30 से 40 फीसदी तक और 2050 तक 90 फीसदी तक कमी करने की तैयारी कर रहा है। इसका मतलब है कि 2030 तक इसे अपना उत्सर्जन कम करके पांच-छह टन तक लाना पड़ेगा और 2050 तक वह उसे दो टन तक सीमित कर देगा। हमारा इसी वक्त प्रति व्यक्ति उत्सर्जन करीब एक टन है। तेज गति से हो रहे विकास की वजह से हमारा तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अगले 10-12 सालों में दोगुना हो जाएगा। इसका मतलब हमें अपना प्रति व्यक्ति तब कम करना पड़ेगा, जब हमारे मुल्क में शहरीकरण अपने चरम पर होगा। तब तक तो चीन का भी उत्सर्जन करीब चार टन के आस-पास होगा। यहसभी मानते हैं कि उत्सर्जन को कम करने की पहली जिम्मेदारी विकसित देशों की है, लेकिन दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं होने के नाते चीन और भारत पर भी उत्सर्जन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी डाली जा रही है। अब हम इस बात को बड़े जोर-शोर से विरोध किया करते थे, लेकिन यह कार्ययोजना हमारी दुनिया के प्रति जिम्मेदारी को दिखलाती है। हमें इस बात पर सोचना शुरू कर देना चाहिए कि हम नई तकनीक और उनके लिए पैसे कहां से जुटा पाएंगे।बाली समझौते मे एक समझौता वित्तीय मदद और तकनीक हस्तांतरण का भी था, ताकि विकासशील देशों को पर्यावरण के लिए बेहतर तकनीक हासिल हो सके। यही वह जगह है, जहां विश्व बैंक अपने जलवायु कोष के जरिये अहम स्थान हासिल करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इसे हासिल करने के लिए मुल्कों को अपना प्रोजेक्ट या प्रोग्राम पेश करना होगा, कंसल्टेंट की रिपोर्ट देनी होगी, आकलन करने वाले दलों को वहां भेजना होगा, कर्जे के दस्तावेज और पचास तरह की और तकनीकी बातों को पहले पूरा करना होगा। इससे कहीं आसान तरीका है क्योटो प्रोटोकॉल का क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म (सीडीएम), जिसके तहत कार्बन क्रेडिट को खरीदने-बेचने का प्रावधान है। इसके तहत विकसित देशों की कंपनियां विकासशील देशों की कंपनियों से कार्बन क्रेडिट खरीदकर खुद को कॉर्बन उत्सर्जन की सीमा से मुक्त रख सकते हैं। इसमे अगर विकासशील देशों में उत्सर्जन बढ़ता है, तो उसको विकसित देशों को संतुलित करना पड़ता है। यह किसी बैंक या ट्रस्ट में पर्यावरण सुधार के लिए पैसे रखने से ज्यादा अच्छा रास्ता है। विकसित देश, विकासशील मुल्कों से कार्बन क्रेडिट को अगर खरीदकर उनका इस्तेमाल अपनी उत्सर्जन सीमा को बढ़ाने के लिए न करें, तो पर्यावरण का काफी भला हो सकेगा। अगर वे उत्सर्जन सीमा की नीलामी का फैसला लेते हैं, तो उसका इस्तेमाल भी वे कार्बन क्रेडिट खरीदने के लिए ही करें। इससे विकासशील देशों को ज्यादा अच्छी और पर्यावरण के लिए बेहतर तकनीक खरीदने के लिए पैसे मिल पाएंगे। यह पर्यावरण की बेहतरी की दिशा में एक बड़ा कदम होगा। खरीदारों को इस बात का ख्याल रखना होगा कि उनकी खरीद दुनिया भर के लिए संतुलित हो। इससे उन इलाकों में भी पैसे मुहैया करवाने में भी मदद मिलेगी, जहां इसकी ज्यादा जरूरत है। इसमें संयोजन की जरूरत पड़ेगी, लेकिन इसके लिए मुल्कों की कार्यप्रणाली को बदलने की जरूरत नहीं होगी। सीडीएम का जारी रहना काफी जरूरी है क्योंकि इसकी वजह भारत, चीन और दूसरे विकासशील मुल्कों के कारोबारियों तक में प्रदूषण के बारे में सजगता आई है। इसकी वजह से कार्बन कारोबारियों की एक पूरी जमात सामने आई है और इसके लिए बुनियादी ढांचे को बनाया जा सका है।लेकिन अब इसे द्विपक्षीय कारोबार से आगे बढ़कर एक ऐसे व्यापार की शक्ल अख्तियार करनी है, जिसमें बड़े व्यवस्थित तरीके से छोटे उत्पादक और आम लोग भी जुड़े हों। इसके लिए कार्यप्रणाली को भी सरल बनाने की जरूरत है। पैसे जुटाना इस मुसीबत की केवल आधी दवा है। पानी के स्रोतों, कृषि, स्वास्थ्य और बस्तियों को पर्यावरण में बदलाव के अनुकूल बनाने के लिए भी अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। इसके सभी को मिलकर कदम उठाने पड़ेंगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सही लिखा आपने-पहाड़ बेहद जरूरी हैं
    स्वागत है नई दुनिया में

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  2. all the posts are very nice,good job....
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